पद
तत्वमसि महावाक्य प्रमाण | भाव भक्ति प्रेम विवरण ||धृ ||
शुद्ध सत्य निखिल जे ब्रम्ह | तेथे इच्छा चैतन्य आगम | महतत्व माया हे उगम | उद्भवला ॐकार या नाम ||
निराकार चैतन्य ते शुद्ध | इच्छितेची माया जाली सिद्ध | सोहं नाम तयाला प्रसिद्ध | अहं मात्रा ॐकारची अर्ध ||
पुरुष ते प्रकृती प्रत्यक्ष | शुद्ध ब्रम्ह इच्छेचीया वसे | अविद्या हे आली जीव दसे | तुकाविप्र घट भिन्न दिसे ||
अभंग
तत्पद प्रमाण परमात्मा ईश्वर | तोची सवीकार | जीवात्मा हा त्वं पद
सस्वरूपाचा या विसर जेधवा | आविद्या तेधवा | तेची होये प्रसिद्ध
पूर्ण चैतन्य ते परमात्मा होये | प्रत्यक्ष चैतन्य हे | जीवआत्मा म्हणती
अनात्मा त्रिगुण भूत साधन जे | प्रपंचे सहजे | तुकाविप्र शरीर
अभंग
अहं अर्ध मात्रा | वोंकारा पासून | मात्रा जाल्या तीन | आ उ म या सहज
आकार प्रथम उकार दुसरी | मकार तिसरी | मात्रा ऐशा ॐकारी
जेथे जन्म हरी हार ब्रम्हा दीका | तिन्ही मात्रा देखा | पिंड ऐसी रचना
देह मात्रा मुळ | प्रकृती ॐकार | त्याचा सर्वेश्वर | अभिमानी होये की
सर्व साक्षी तेथे | आवस्था विचार | म्हणे तुकाविप्र | परा वाचा तेथीली
पद
माया देहे दूसरा बोलीयेला | अभिमानी की हो रुद्र त्याला
वाचा पश्यन्ति होये दुजी तेथे | तये स्थानी मकार मात्रा सत्य
आवस्था हे प्रलय तये स्थानी | वर्म जाणती गुरु भक्त ज्ञानी
सत्य तिसरा हिरण्य गर्भ देहे | तेथे मात्रा उकार जननी हे
वाचा मध्यमा विष्णु अभिमानी | स्थिति अवस्था ऐसे देह तीनी
देहे विराट अभिमानी ब्रम्हा | सृष्टि अवस्था आकार मात्रा नेमा
वाचा वैखरी विप्र म्हणे तुका | जेथे उद्धव वेद सकळीका
अभंग
स्थिति उत्पत्ति संहार | तिन्ही देवाचा व्यापार
कोणा पासोनिया कोण | जाला विस्तार प्रमाण
आवधानी प्रीती द्यावी | पिंड रचना ऐकावी
जीव आत्मा कोणे रीती | वाहाडला त्रिजगति
सत्व अहंकारी भला | जन्म अंतकर्णा जाला
अहंकार चीत बुद्धी | मन अंतकर्ण आधी
तुकाविप्र म्हणे ऐका | श्रोत्या सकळ भावीका
अभंग
आत्मयासी याची द्वारे | होये विवेक संचारे
मन बुद्धी आणि चित्त | चौथा अहंकार सत्य
अंतकर्ण हे पाचवे | देह वर्तवी स्वभावे
अंतकर्णी हेत जाला | तोची मनासी कळला
होये नोहे म्हणे मन | बुद्धी निवडती ज्ञान
चित्त निश्चयासी आणी | अहंकारी ते करणी
तुकाविप्र अंतकर्ण | पाई सद्गुरू प्रमाण
अभंग
सत्व अहंकारी जाला | आता राजस बोलला
राजस या अहंकारी | जाली इंद्रिये ही खरी
चक्षु रसना श्रवण | त्वचा पाचवे ते घ्राण
शब्द स्पर्श रुप रसे | गंध विषय हे ऐसे
वाचा पाणी हे चळण | गुद उपस्थ प्रमाण
सूष्ट दुष्ट कर्म होती | गुण इंद्रिया संगती
अहंकारी या राजसे | तुकाविप्र नाचतसे
पद
तामस अहंकारी अहंकारी तत्वे जाहाली खरी |धृ |
तामस अहंकारी जन्मले | आकाश निर्मळ हे चांगले |
वायो आकाशी जन्मला | आणि तेजासी या व्याला
वायो पासूनी जाले तेज | तेजी आप जाले सहज
पृथ्वी आपी हे जन्मली | सर्वा आधार होती जाली
तुकाविप्र म्हणे गुण | भुते ऐकावी प्रमाण
पद
ऐका गुणभुते गुणभुते | पंच पंचवीस ते | धृ |
अस्थि मांस त्वचादी रोम | नाडी पृथ्वी पासूनी जन्म
पृथ्वीचे घर स्वाधीष्टान | जिव्हा मुख आणि पीत वर्ण
स्वाद गोड पर्णरस आहार | फरश अंकुश दोनी शस्त्र
तुकावीप्र म्हणे बोलीली | पृथ्वीचे हे खूण जाहाली
अभंग
पंचवीस भुते पंचवीस गुण | तयाचा प्रमाण | विस्तार हा
पृथ्वी जाली आता आपाचा विस्तार | ऐका आदरे | भावीक हो
लाळ मूत्र श्रूक श्रोणित हे श्वेद | आपाचे प्रसिद्ध गुण हे
घर नाभी आणि वर्ण असे श्वेत | मुख त्या उपस्थ स्वाद क्षार
आहार मैथुन सूरी याचे शस्त्र | म्हणे तुकाविप्र आप ऐसे
अभंग
पृथ्वी जाले आप | जाले आता तेजे | विस्तार सहज | ऐकावा की
क्षुधा तृषा निद्रा | आळस कांती हे | तेजांश हा होये | रक्त वर्ण
हृदय भुवन | तेजाचे हे घर | देखणे आहार | मुख नेत्र
स्वाद त्याचा असे | सहज तिखट | भाला हे प्रगट | शस्त्र त्याचे
तुकाविप्र म्हणे | विस्तार तेजाचा | जाला आता साचा | वायो ऐका
अभंग
पृथ्वी आप तेज | तीहीचा विस्तार | जाला आता सार | वायो ऐका
धावन वळण निरोध आकोंच | पसरण पांच | वायोचे हे
घर कंठ स्थान | वर्ण असे निळा | स्वाद असे आम्ला | मुख नाक
वोडण खांड हे दोनी वायो शस्त्रे | परिमळ आहार प्रमाणची
तुकाविप्र म्हणे | विस्तार वायोचा | जाला आकाशाचा | ऐका आता
अभंग
क्रोध लज्जा भय | द्वेष मोह ऐसे | आकाशाचे अंश | पांच हे की
याचा असे वास | ललाटाचे ठायी | मुख याचे पाही | श्रवण हे
आहार ऐकणे | वर्ण याचा काळा | प्रचीत सकळा | स्वाद कडू
शस्त्र असे बाण | आकाश या रीती | बोले वेद श्रुती | महावाक्ये
तुका विप्र म्हणे | आता पुढे ऐका | प्रीती सकळीका | सूचना हे
अभंग
आप निद्रा करी | पृथ्वी बोलतसे | वेदार्थ सुरस | श्रुती शास्त्र
तेज पहातसे | नाना पदार्थासी | अक्षर ज्ञानासी | व्हावयाला
वायो चालतसे | देहासी घेवोनी | आकाश ऐकोनी | सुखरूप
तुकाविप्र म्हणे | पाचांचा स्वभाव | सहज अपूर्व | वेगळाला
पद
पंच तत्व तनु आकारली | साहित्यही त्यास योजीली ||धृ ||
नामे दाहा एकाची प्राणाची | वेगळाली वर्तणूक ज्यांची | प्रीती नामे ऐकावी तयाची | प्रथमता नाम हे प्राणची
व्यानोदान आपान समान | पांच पिंडी प्राण हे पवन | क्रीया याची देहे वर्तमान | ऐकावी श्रोते प्रीती आनंदाने
प्राणश्री श्वासो श्वासी वेरझार | करीतसे नित्य निरंतर | अन्नोदक करीतो आहार | अभंग हा तयाचा व्यापार
व्यान रस धातुसी निवडी | सांदोसांदी पोहोचवी गोडी | तेणे होये शरीरा वाहाडी | तेणे होये शरीरा वाहाडी
मळमूत्र आपान सारीतो | सर्व संधी समान लवतो | पाचाचाही व्यापार नित्य तो | तुकाविप्र आनन्द गर्जतो
पद
पिंडाधी पती जाहाले देहाचे | ब्रम्हांडासी धीपती हे पांच ||धृ ||
नाग आणि कूर्म देवदत्त | धनंजये कर्कश विख्यात | ब्रम्हांडाचा व्यापार हे कर्ते | पंचांग या ज्ञानासी जाणते
जांभईसी देत असे नाग | कूर्मा घरी ढेकर प्रसंग | हास्य रुदनेचे सर्व अंग | देवदत्त शिंकतो अभंग
आंगमोडा देतो धनंजये | ऐसे पिंड ब्रम्हांड दहा हे | पिंड ऐसा प्रपंचची होये | ज्ञान ऐसे पिंड चालता हे
आकाशाचा होये हा कर्कश | नाग असे वायोचा प्रत्यक्ष | ढेकूर हा कूर्म आप तेज | देवदत्त आपाचा निशे:श
धनंजये पृथ्वीचा प्रमाण | देहाचीया मेळी सर्व प्राण | जीव भाव नसे प्राणेवीण | प्रपंच हा तुकाविप्र म्हणे
अभंग
ऐशा रचियेल्या स्थूळा | सांगितल्या साक्षी कळा |
प्राण बिजा पासोनिया | रुप प्रपंच तनु या
ऐसा तत्व योग साचा | छत्तीस हा विभागाचा |
जाणती हा क्षेत्र योग | तेची अध्यात्मीयेचा ग
तुकाविप्र म्हणे प्रीती | ऐसे नेणे मूढ मती
अभंग
आंतकर्ण श्रोता प्रती | येते व्यानाचे संगती
तेथोनीया असे चित्त | वाचा शब्दा प्रती सत्य
ऐसे पांच गुण भले | लीन आकासी जाहाले
मग संगती समान | त्वचे प्रती येते मन
स्पर्श विषयाची घेणी | करी चेष्टवोनी पाणी
एवं तुकाविप्र म्हणे | पवनी हे पांच लीन
अभंग
उदानासी हाती धरी | बुद्धी चढे दृष्टीवरी
चरणा चेष्टवी निवडी | रुप तेजाचे आवडी
चित्त प्राणचीया सवे | रसनेचा ठाव पावे
सीस्ना चेष्टवोनी प्रीती | धावे रती रसा प्रती
एवं पांच जणी जळी | देवोनीया बुटकुळी
जाली पृथ्वीसी मिळणी | तुकाविप्र वदे वाणी
अभंग
आता पृथ्वीचीया मेळी | आली ऐकावी सकळी
अहंकाराचीया मती | वायु अपाना संगती
घ्राणा प्रती येत असे | गंधा निवडी उल्हासे
येवं पंचप्राण घोडा | होये मन वृत्ती आरूढा
सर्व आंगी पसरोनी | आसे एवढा लक्षणी
तुकाविप्र म्हणे साचे | लिंग देह वासनेचे
पद
आकर्म कर्म | काहीच आत्मा नेणे ||धृ ||
नाही अभिमान ज्याला | कर्ता आकर्ता हा त्याला | नाम रुप वार्ता गुणे
जेथे इच्छा उपक्रम | तेची निष्कर्मीया कर्म | जन्म चराचर होणे |
होवोनीया इच्छायुक्त | आसक्त तो जाला सक्त | महतत्व प्रगटणे
प्रगटले महतत्व | उभारले गुण सर्व | तुकाविप्र जीव प्राणे
अभंग
तया कर्म संचिताचा जाला व्यये | तेथे गुणत्रये उभारले सहज
देव त्रये शक्ती सह वर्तमान | जाहाले उत्पन्न | ब्रम्हा विष्णु महेश
तिन्ही देव हेची तिन्ही अहंकार | शक्ती प्रतिकर कारण हे उपाधी
तुकाविप्र म्हणे ईश्वराची माया | आज्ञान बोलाया | नाहीच की दुसरी
अभंग
स्वरूपी जाहाले अज्ञान उदित | कारण तयाते | म्हणतात प्रसिद्ध
जे का प्रसवले अद्भुत प्रपंच | आज्ञान कंदाचे | मग तया अंकुर
होते जाले मग लिंग ते शरीर | वासना आकार होये सत्य जयाचा
वासनामय हे दृष्टीसी दुर्गम | म्हणोनी सुक्षम | तुकाविप्र वायो हे
अभंग
इच्छाशक्ती असे सत्वगुण | जन्म अंतकर्ण चेतुष्ट्य हा जाहला
जीव रुप तया पाचाशी वर्तने | अंतकर्ण मन बुद्धी चित्त अहंता
अंतकर्ण उगा संकल्प ऊठीजे | तयासी म्हणे जे मन करू न करू
तुकाविप्र म्हणे नेमोनीया सांगे | तेची बुद्धी मग लक्ष सांगे प्रमाण
अभंग
सांगितले तेच धरिले जिव्हारी | ऐसे ते निर्धारी चीत रुप जाणावे
अहंकार तोची धरील्या त्या अर्था | स्वीकार ममता | त्याग करी जाणोनी
ऐसीया प्रकारे सत्वाची संतती | रुप यथा व्यक्ति | केले असे अभंग
तुकाविप्र म्हणे रज स्थिति आता | ऐका भावे श्रोता | वक्ता हरी विठ्ठल
अभंग
कर्मेंद्रीये ज्ञानेंद्रिये दहा जण | पंधरा प्रमाण | पंच प्राणे सहित
पाचा तत्वाचे हे पाच पांच गुणे | वाटणी प्रमाणे | स्थूल देहे उभारा
आस्थी मांस त्वचा नाडी रोम पृथ्वी | मिळाली बरवी | पांच पाचा प्रकारे
आपी मास तेजी त्वचा नाडी वायो | रोम नभी स्वंयो | आस्थी तुकाविप्र श्री
सौरी
पाचा ठायी पाचा रीती क्षिति मिसळली | आप ऐसे पांचा ठायी आनायसे चाली
मूत्र आपी रक्त तेजी लाळ वायो प्रती | वीर्य तेज आकाशासी स्वेद असे क्षिति
तेज क्षुधा आप | त्रशा वायो मैथुनासी | तुकाविप्र नभी निद्रा क्षीती आळसासी
सौरी
पाच आंगे पाचा ठायी वायो मिसळला | प्रसरण आकाशासी वायो देता जाला
धावनासी आपणा ठेवीतसे वारा | निरोधन ते तेजा प्रती भाग दिला खरा
वळण हे आपा प्रती पृथ्वी आकोचना | वायो ऐसा पाचा ठायी तुकाविप्र म्हणा
वोवी भय आकाशाचा अंश | आकाशी हा सदा असे | द्वेष वायोस राग तेजास | लोभ आपास मोह पृथ्वी
पंचवीस पाचा पांचा | मेळ झाला तत्वांचा | आकार हा स्थूल देहाचा | हा कळलीया परिचयो
ऐसे कळलीयावीन प्रीती | नोहे आत्म ती प्रतीति | लिंग देहाची तत्वे प्रीती | याची रीती वाटावी
पंच महाभूताचे विशेष | गुण दिसती प्रत्यक्ष | गंध रुप शब्द स्पर्श रस | वर्तत असे आंतकर्ण
आहंकार आपान घ्राण गंध स्वेद | हे पृथ्वीचे गुण प्रसिद्ध | आकासी अहंकार | अपान वायो शुद्ध
तेज गंध आपी | ऐसी क्षिति मिळाली हे पाचा प्रती | तुकाविप्र म्हणे श्रोती | दिजे प्रीती आवधान
अभंग
दिडका आप मिळाले पाचास आता कैसे ऐकावे |
चित्त आणि जिव्हा प्राण | रस सीस्न पांच हे
चित्त आकासी दिधले | वायो दिले प्राणासी |
जिव्हा दिधली तेजासी आपासी रस हा
सीस्न पृथ्वीसी नेमीले | ऐसे जाले आप हे |
तेज गुण आता ऐका | सकळीका सूचना
तुकाविप्र म्हणे आप | हा संकल्प जाहाला
अभंग
दिडका तेजाचे हे पांच गुण | आता देणे पाचासी
बुद्धी उदान हे दोन | चक्षु तीन रुप हे
पादा सहित हे पांच | गुण साच तेजाचे
बुद्धी दिधली आकासी | हा वायोसी उदान
चक्षु तेजीच राहिले | रुप दिले आपासी
पाय दिधले पृथ्वीला | ऐसा जाला विभाग
तुकाविप्र म्हणे पांच | पवनाचे ऐकावे
अभंग
दिडका स्पर्श पाणी मन त्वचा | हा वायोचा समान
मन दिधले आकासी | आपणा पासी समान
त्वचा तेजासी दिधली | आपा भली स्पर्शणी
पृथ्वी प्रती दिले पाणी | हे मिळणी वायोची
आता मिळणी आकाश | पांच आकाश पाचासी
तुकाविप्र म्हणे श्रोती | हे पुढती ऐकावे
अभंग
पांच आकाश आकार | व्यान श्रोत अंतकर्ण
शब्द वाचा सार सत्य | गुण नित्य आकाश
आंतकर्ण आकाशात |व्यान देत वायोसी
श्रोत्र अंश ठेवीयेला | तेजी भला आकाशे
शब्द आपी वाचा मही | पाचा ठायी मिळाली
तुकाविप्र स्वामी भेटी | आर्थ गोष्टी अभंग
पद
पाचाचे हे पंचवीस गुण | देही वावरे चळण हे जाण
शरीरी हा त्रिशून्य मार्ग चाले | तिन्ही वाटा ओंकार होते जाले
भव बंधाचा ठाव पुसे चौथे | प्राणापान हे मावळती जेथे
त्रिशून्य हे तयासी म्हणताती | चौथे व्यापक सर्व मोक्ष मुक्ती
तुकाविप्र ते मोक्ष मुक्ती पद | भक्ति वदे भावार्थ श्रुती वेद
अभंग
आद्य शून्य मध्य शून्य ऊर्ध्व शून्य आणि चतु शून्य निशून्य ते
आद्य शून्य तेची आकार मात्रका | उकार मात्रका मध्य शून्य
मकार मात्रका हे ऊर्ध्व शून्य होये | चैतन्य ते होये ओंकारची
सोहं ब्रम्ह चहु शून्याही परते | असे अलिप्त ते वर्ततसे
एवं महाशून्य सत्य चतुर्विध | पिंडी चारी शुद्ध तुकाविप्र
अभंग
पिंडी चारी शून्य ऐकावी प्रमाण | गुरुपुत्रा खूण समजावी
आद्य शून्य मन चंचल जाणिजे | पवन म्हणीजे ऊर्ध्व शून्य
मध्य शून्य जीव चौथे परब्रम्ह | निर्गुण त्या नाम | निराकार
निसंग ते निर्विकार पूर्ण घन | ऐसे समजोन योग सिद्ध
तुकाविप्र म्हणे शून्य कथा ऐसी | पुढे कथा कैसी ऐकावी ते
अभंग
वोंकारावरी ही शून्य बोलताती | सत्य नव्हे युक्ति परंतु ते
प्रमाण ते नव्हे जीवकृत होये | तार्किक वाद बोला बोली
चीदाकाश सर्व भूत क्षर तोची | निर्गुण ही तोची अक्षर की
कुटस्थ निर्गुण अक्षर ऐसीया | क्षराक्षराची व्याव्यावृत तो
तुकाविप्र म्हणे पुरुष उत्तम | पूर्ण परब्रम्ह सदोदित
अभंग
क्षराक्षरातीत उत्तम पुरुष | भरीत प्रत्यक्ष वेद शास्त्र
वेद शास्त्र जो का पुराण भरीत | उत्तम विख्यात पुरुष तो
ऐसे तत्वमसी महावाक्य ज्ञान | जाहाल्या समान जीवेश्वर
जीव ईश्वराची ऐक्यता प्रसिद्ध | जाणीतल्या शुद्ध महावाक्य
तुकाविप्र महावाक्याचा गजर | प्रमाण साचार बिजाचा हा
पद
उठले ब्रम्ह | सागरी तरंग हे |धृ |
स्वरूपासी विसरले | जीव दशे प्रती आले | देहा दीक प्रमाण हे
अविद्येचा संग जाला | जीव दशा ईश्वराला | यासी ज्ञान तारू होये
ज्ञान सूर्य उदेजल्या | सर्व दिशा उजळल्या | परब्रम्ह दिसत हे
तम गेला अविद्येचा | क्षुधांश तो ब्रम्ही साचा | तुकाविप्र नर देहे
अभंग
स्थूल अवस्था जागृती | लिंग देहाची ही स्थिति
सूशूप्ती हे कारणांची | ऐसी आहे प्रसिद्धची
स्थूल अभिमानी विश्व | लिंगाभीमानी तैजसू
प्राज्ञ कारणाभीमानी | विश्व वसे दृष्टी स्थानी
कंठ स्थानी हा तेजस | प्राज्ञ ह्रदयीच वसे
त्रय अवस्था या भेदे | अभिमानी च्या संबंधे
मनोवृत्ति विषयाचे | ज्ञान तुकाविप्र साचे
अभंग
स्थूल लिंग हे कारण | होये उपाधी प्रमाण
रुपे प्रणव चांगले | तिन्ही गुण विस्तारले
अन्नमय प्राणमये | तीसरे ते मनोमये
कोश विज्ञान चवथे | पाचवे ही आनंद ते
ऊसाचीया पोटी रस | आत्मा तैसा पंच कोश
तुकाविप्र म्हणे भले | आत्मतत्व निवडले
पद
आजपा हे गायत्री पिंडीची | श्रोत्या प्रीती आहे ऐकायाची ||धृ ||
आधारते चक्र गुद स्थान | रिद्धी सिद्धी शक्ती रक्त वर्ण | गणपती देव प्रमाण | ऋषि तेथे ईश्वर प्रसन्न
जप सहा चार मात्रा | मंत्र मुख्य दोनीच अक्षरा | चतुर्दळी अवस्था पवित्रा | आहेतीया ठाव्या गुरु पुत्रा
स्वाधीष्ठान लिंगस्थानी होये |अग्नी ऋषि पीतवर्ण ते हे | ब्रम्हदेव तेथे देवता हे | सत्य तेथे सावित्री शक्ती हे
सहा दळी सहा मात्रा सार | जप होत असे सहा हजार | मुळ मंत्र दोनची अक्षर | आजपा हा जप निरंतर
मणिपूर चक्र नाभी स्थान | वर्ण नीळा विष्णु देव धन्य | शक्ती तेथे कमळा आपण | वायो ऋषि त्या दळी
प्रमाण
दहा दळे दहा मात्रा जप | नित्यसा हा सहस्त्र संकल्प | जपेवीण म्हणोनी आजप | अनुहात ऐकावा प्रताप
अनुहात ह्रदये भुवन | उमा शक्ती देव त्रीनयन | सूर्य ऋषि प्रकाशितमान | बारा मात्रा बारा दल ज्ञान
जप सहा सहस्त्र गर्जना | विशुद्ध हे चक्र कंठ स्थाना | शुभ्र वर्ण शोभा भिन्न भिन्ना | शक्ती जेथे अविद्या निधाना
जीव देव चंद्र ऋषि जेथे | जप सहा सहस्त्रची तेथे | सोळा मात्रा सोळा दले सत्ये | आता श्रोते द्वीदळ ऐकाते |
अग्नि चक्र वर्ण शुद्ध ज्योति | भ्रुकुटीचा मध्यभाग क्षिति | हंस ऋषि माया देवी शक्ती | परमहंस देव शोभताती
दोनी दले दोनी मात्रा थोर | जप तेथे एकची मात्रा सहस्त्र | ब्रम्ह रंध्री सहस्त्रची सार | आत्मादेव गुरु रुशेश्वर
ज्ञान शक्ती ऊर्ध्व द्वारे येता | वायो तेथे होये संचरता | अहंकाराचे मुळची तत्वता | सहस्त्र दळी तुकाविप्र सत्ता
अभंग
सहस्त्र दल ते अहंकाराचे मुळ | ते ठायी बहळ नाना ध्वनि होताती
सोहं केवळ ते गुरूस्थान होये | अनेक वर्ण हे तया स्थळी सहज
जेथे ज्ञान शक्ती परमात्मा देवता | तया गुरूनाथा नमन हे साष्टांग
तुकाविप्र म्हणे बावन मात्रका | साता चक्री ऐका आजपा याज प्रती
अभंग
व पासोनी श ही चारीच अक्षरे | चक्र मुलाधारे सहा शत जपासी
स्वाधीष्टान चक्री सहा मात्रा सिद्ध | ब पासोनी शुद्ध ल पर्यन्त अक्षरे
मणीपुरी अक्षरांची ही गणना | ऊ पासोनी जाणा फ पर्यन्त ते दहाही
क पासोनी ठ पर्यन्त मात्रा बारा | अनुहात चक्रा बारा दळी शोभती
सोळा स्वर मात्रा विशुद्ध ठिकाणी | द्वीदलासी दोनी नेमिली अक्षरे
तुकाविप्र म्हणे उरले ते बीज सोहं मात्र नीज एकवीस सहस्त्र
अभंग
सहा शत आणि एक्वीस हजार | प्राण येरझार श्वासो श्वासी करीतो
साकार तो सत्य आत ओढतसे | बाहिर येतसे हाकार तो प्रसिद्ध
सोहं मंत्र बीज पिंड ब्रम्हांडासी | पन्नास मात्रासि रुप दोन अक्षरे
गुरुपूत्र ज्ञानी जप हा जाणती | अजपा म्हणती वेद शास्त्री पुराणी
तुकाविप्र म्हणे क्रिया दळ प्राण | आजपा संपूर्ण पुढे आता ऐकावे
अभंग
त्रिकुट श्रीहाट तिसरे गोल्हाट | चौथे औटपीठ गुंफा पांच भ्रमर
आत्मयाचे स्थान सहस्त्रदळ ते | ब्रम्ह रंध्र सत्य शेवटील सहावे
मुख हे त्रिकुट शोभा शाम वर्ण | ते ठायी प्रमाण ऋषी पृथ्वी येसणा
लिंग ते आच्यार ऋग्वेद ते स्थळी | जागृती वेल्हाळी अवस्था ते ठिकाणी
तुकाविप्र म्हणे कमळासण देव | ऐसी हे अपूर्व त्रिकुटीची रचना
अभंग
रसना जाणती सर्व ही रसाते | श्रीहाट स्थान ते आप ऋषि तेथील
स्वप्नावस्था देहे ते कारण | गुरु लिंग प्रमाण येजुर्वेद ते ठायी
कमळा वल्लभ तेथील देवता | शोभा ते पाहता क्षीर वर्ण साजिरी
नेत्र स्थान हेची गोल्हाट कमळ | ते ठायी झळाळ तेज ऋषि करतो
सीवलिंग तेथे सामवेद गाती | अवस्था सुषुप्ति देव पाणी पिनाक
गोल्हाटाचे वरी पादुकांचे तळी | औठाचीये स्थळी पुण्यागीरी प्रमाण
जंगम लिंग वायो तेथे ऋषि | ते ठायी वेदासी आथवर्ण उच्चार
तुर्या हे अवस्था देवता ॐकार | शोभा ती समग्र नीळ वर्ण तेथीली
श्रोत्र स्थान होये गुंफा हे भ्रमर | तेथे ऋषेश्वर आकाश हे प्रसिद्ध
प्रसाद ते लिंग सूक्षम ते वेद | उन्मनी प्रसिद्ध अवस्था ते स्थळीची
तुकाविप्र म्हणे शोभा कृष्ण वर्ण | देवता प्रमाण सदासीव त्या स्थळी
अभंग
सहस्त्र दळी ब्रम्हरंध्र स्थान | गुण चक्रा लये | कोटी सूर्य प्रकाश
वेद नाही देव अवस्था नाहीच | कोटी चंद्र साचे | वोप देती प्रमाण
समाधी सुख ते स्वानंद सेजार | भुवन परात्पर ब्रम्हांडीची आजपा
आजपा जाहाली पिंड ब्रम्हांडीची | क्रिया पवनाची आता श्रोते ऐकावी
तुकाविप्र म्हणे प्रीती आवधानी | आसावी म्हणून वीनंती हे अभंग
अभंग
इडा पिंगळा सुशूम्ना | देही वर्तती या भिन्ना
पवन हे सिद्धी जाणा | योगियाच्या सिद्ध खुणा
वामे इडा वाहातसे | पिंगळा हे दक्षणेस
मध्ये सुशूम्ना त्रिवेणी | ऐसी जाहाली मिळणी
स्रावी अमृत सत्रावी | कळा जीवन स्वभावी
तीला सेवीता अमर | होये प्रमाण तो नर
तुकाविप्र म्हणे ज्ञानी | नित्य नेम या साधनी
अभंग
उष्ण काले उष्ण काया | बहु संतप्त जालीया
अर्ध चंद्र ऊर्ध्व कीजे | क्रिया पवन सहजे
होये सितळ तो प्राणे | मग संतोष पावणे
शीत काळी शीत त्वचा | उपाय हा पीडील्याचा
पिंडीचा तो अर्ध सूर्य | साधने तो ऊर्ध्व होये
तरी न लगे प्रावर्ण | कथा अग्नि ही प्रमाण
क्षुधा काळी क्षुधा पिडी | तरी तयासी हे जोडी
कीजे सत्रावी दोहन | देही वारे भूक तहान
होये सहज निचाड | नाही भोजनाची चाड
ऐशा पवन अभ्यासी | काळ वंचना काळासी
व्हावे अमर म्हणोनी | भाव धरी अंतकर्णी
आत्मज्ञानी ऐसे रीती | नित्य साधनी आहेती
इति पवन प्रकर्ण | हरी गुरु समर्पण
नाही साधन हे कोणा | उग्या बोलाबोली खुणा
तुकाविप्र म्हणे खेळ | सिद्ध सहज सकळ
अभंग
ज्ञानी तपस्वी महंत | भक्ति निष्ठा आलंकृत
नाही संगाचे वेसन | विषयाचे नाही ध्यान
काम क्रोधा जे वेगळे | सदा शांतीचे पुतळे
नीराभिमान ची ते | त्यजी काम्य निषधाते
तया ज्ञान हे कळावे | इतरांसी न कळावे
तुकाविप्र म्हणे ज्ञान | गुरु भक्तासी प्रसन्न
अभंग
गुरु भक्त कथा रंगी | नाचे संताचीया संगी
निंदा स्तुति करो कोणी | नाही जयाचीया मनी
अभिमान नाही जया | ज्ञान सांगावे तया
लाभ आलाभी जो स्थिर | सुखरूप निरंतर
योग्य ऐसीया सहज | तुकाविप्र म्हणे नीज
पद
वाशिष्ट हा श्रीराम संवाद | परउपकारार्थ आनन्द ||धृ ||
अष्ट दळा कमळ ह्रदये | तेथे मन मधुकर आहे | भ्रमण तो नित्य करीताहे | पूर्व दळा आ श्वेत वर्ण होये
तेथे जरी प्रवेशले मन | तरी धैर्य उदारता पुण्य | वासना हे होये सुप्रसन्न | मन पाकोळीका हे साधन
अग्नि दळी असे वर्ण राता | जरी तेथे मन पावे सत्ता | तरी मग अवस्था हे चित्ता | उद्वेग का शोक उपजता
दक्षणया दिशे वर्ण काळा | तेथे मन संचरे ज्या वेळा | क्रोध द्वेष वासने वेगळा | नव्हे प्राणी कोणत्याही काळा
नैऋतेचे पाते असे निळे | मन तेथे मधुकर खेळे | तरी वित्त पुत्र मोह जाळे | बांधीयेले असे यांनी बळे
पीत वर्ण पश्चिम दळ ते | मन असे संचरता तेथे |विनोद हा आल्हाद भरीत | सुखरूप तुकाविप्र नाथ
अभंग
शाम वर्ण पाते वायव्य कोणीचे | त्या ठायी मनाचे येणे जरी
तरी तीर्थ साधू दर्शनाची चाली | भावना तेथील सर्वोत्तम
उत्तर पाकोळी पीत वर्ण तेथे | मन जाये सत्य तरी मग |
अष्ट सुख भोग करू उपजती | पाकोळी ऐका ती इशान्येची
गौर उत्तम ते ईशान पाकोळी | तयाचीया मेळी मन जाये
तरी हरीकथा श्रवण मनन | उपजे कीर्तन देहे धर्म
मनासी प्रवेश जाहालीया संधी | आत्मा पिडे व्याधी रोग ऐसा
मध्य स्थिरावल्या निद्रा की समाधी | प्रहराचे संधी विश्रांती हे
मन कळीकेसी भ्रमण करीत | अनुसंधान ते ऐसे असे
ऐशा अष्ट कमळाच्या ज्ञाने | परमार्थ साधन उपकारा
महावाक्य ऐसे बोलतची आहे | अनुभव ते हे सिद्ध कथा
तुकाविप्र म्हणे वशिष्ट श्रीराम | संवाद उत्तम अभंग हा
अभंग
सिद्ध स्वरूपाचा हा सहज खेळ | स्वभाव निर्मळ पांच मुद्रा प्रकर्ण
वेगळाले वर्ण वेगळाले स्वभाव | सिद्ध अनुभव श्रुती वाक्य प्रमाण
तुकाविप्र म्हणे विस्वासे श्रवण | मनन करणे घेणे अनुभवासी
पद
प्रथम मुद्रा | चांचरी दृष्टी द्वारे || धृ ||
आडविया दृष्टी उंच | नेत्र करोंनीया साच | आंतराळ पाहे बरे
आंतराळी दृष्टी देणे | करोंनीया डोळे लहान | दोन्ही पाती बरोबर
लावोनीया नेत्र पाती | आंतराळ पाहावीती | तेथे दिसे मुक्त हार
मुक्ताफळ वोळी दृष्टी | दिसताती बहु कोटी | स्थिति होये निरंतर
निरंतर स्थिति बळे | जेथे तेथे भरी डोळे | दृष्टी पुढे तेची फिरे
कृत्तिकाचा मेळा जैसा | चांदण्याचा घोळ तैसा | होत असे खालीवर
देख पाहे डोळा तुका | विप्र कृपा बळे एका | चाचरी हे मुद्रा थोर
अभंग
चाचरी हे मुद्रा श्वेत वर्ण सदा | पाववी आनंदा योगियासी
ऐसी मुद्रा जाली प्रथम विख्यात | जाणत आहेत गुरुपूत्र
श्वेत वर्ण गोळा चांदण्याचा ब्रम्ह | होवोनीया जन्मा सार्थकता
तुकाविप्र सत्य दृष्टी द्वार ज्ञान | सद्गुरू प्रसन्न सर्वकाल
अभंग
मुद्रा हे दुसरी हे दुसरी | नाम जीला भूचरी || धृ ||
नासग्रावरी दृष्टी धरणे | मुखी उजाळ होणे तेणे
लवू न देवी पापणी | तेणे नेत्रा सुटते पाणी
पाहाता मुखावरति तार | पडती उजाळाची थोर
सहजी पाहोनी ते चांदिणे | आकळूनी मन बुद्धी आसणे
नाना श्रवणी ध्वनि उठताती | तेथे गुरु पुत्र लीन होती
ऐसी मुद्रा हे दुसरी | तुकाविप्र डोळे भरी
अभंग
नीळ वर्ण हे दुसरी | मुद्रा प्रसिद्ध भूचरी
गुरु पुत्रासी मोहन | मुद्रा भूचरी साधन
जाल्या ऐशा दोनी मुद्रा | समजल्या गुरु पुत्रा
पाचा माजी जाल्या दोनी | प्रीती आसो आवधानी
तीन उरल्या ऐकणे | गुरु पुत्र मुद्रा जाणे
तुकाविप्र म्हणे श्रोता | आगोचरी ऐका आता
पद
ऐसी मुद्रा ऐका आगोचरी | तिचे ध्यान असे अभ्यांतरी ||धृ ||
धरोनीया मन एक निष्टा |निराकारी सत्य नीज निष्ठा | मौन धरी आगोचर मोटा | लावोनीया दोनी नेत्र वाटा
मन स्थिर ह्रदयी करावे | दृष्टीद्वारे काही न पहावे | आपणची अगोचर व्हावे | उत्तरची कोणासी न द्यावे
मन ऐसे राखोनी आढळ | सत्यमुद्रा तिसरी निर्मळ | पीतवर्ण दिव्य सुतेजाळ | गुरुपुत्रा कारीणी मंगळ
तिसरीया मुद्रेचे मोहन | आपणिया लागे प्रीती ध्यान | होवोनीया जाये विसर्जन | सामावल्या आगोचरी शून्य
प्रसिद्ध हे मुद्रा आगोचरी | राखोनीया मन अभ्यांतरी | निश्चलता सबाह्य आंतरी | तुकाविप्र हे मुद्रा तिसरी
सौरी
चौथी मुद्रा खेचरीचे स्थान अंतराळी | भ्रमर या गुंफे माजी दृष्टी लावीयेली
पाहणे हे खरे असे दृष्टी उफराटे | अनुभव तेथीलीया देखण्याच्या नेटे
दृष्टी थोर त्रिकुटीसी घालूनीया जाये | गोल्हाटासी ब्रम्हरंध्री स्थिर मन होये
ॐकार तो तेथे भासे दिसे रक्तांबर | गगन हे लाल दिसे उगवता मित्र
आठवे हे असे सत्य समाधीचे | ऊर्ध्व पंथे पाहणे या गुण खेचरीचे
खेचरीचा अनुभव जाहालीया वरी | भव बंधनासी तोडी चौथी मुद्रा खरी
वर्ण लाल खेचरीचा तोडी भवबंध | क्षण एक न लगता लाभ असे सिद्ध
गुरु गम्य गुरु पुत्र साधकासी ठावे | संपादावी गुरु कृपा अनुभव घ्यावे
तुकाविप्र खेचरीची अनुभव सिद्धी | सूप्रसन्न जाहलिया गुरु कृपा निधी
अभंग
आलक्ष हे मुद्रा खरी | हिचा लेखा कोण करी
वेद समर्थ ही नेणे |श्रुती नेती नेती म्हणे
वाचा बोलणे खुंटले | नेत्री पाहणे राहिले
ज्याचा तोची जाणे सुख | येरा होये टकमक
आलक्ष मुद्रेचे घर | आलक्ष जे आपरंपर
जाणीतल्या यातायाती | येरझारा चुकताती
पाचवीचे या कथन | संत जाणती सज्जन
अनिर्वाच्य हे आलेख | नाही रूप आणि रेख
यवं सह्य वर्ण पणी | येक प्रसिद्ध उन्मनी
पांच मुद्रांचे निर्मळ | ऐसे स्वभाव सकळ
योग्य श्रवण कराया | चित्ती साधन धराया
श्रोतीयासी हे सूचना | प्रीती असो आवधाना |
भावे भक्ति साधनासी | लागलीया सिद्धी त्यासी
तुकाविप्र म्हणे सिद्ध | भावे साधन प्रसिद्ध
अभंग
तार्किक हा पक्ष | दृष्टी द्वारे मोक्ष || धृ ||
चाचरी भूचरी खेचरी | चौथी बोलती आगोचरी
चाचरी म्हणजे आडवे | दृष्टी पाहणे हे स्वभावे
नासीक अग्री असे लक्ष | मुद्रा भूचरी हे प्रत्यक्ष
खेचरी ही मुद्रा म्हणी जे | आकासी त्रिमीरा ते लक्षी जे
आगोचरी हे ऐसे ध्यानी | बैसती नेत्रासी लावोनी
आलक्ष जयेचे हे घर | पांचवी मुद्रा आपरंपर
दृष्टीद्वारे तुकाविप्र | पाहाणे पर वस्तु साचार
अभंग
भडगावकर म्हणती स्वामीला | आता पंढरीला आहेत जे
त्याजला भूचरी प्रत्यक्ष प्रसन्न | आहे संत जण पहाताती
क्षुधा त्रशा तृपी मळ मूत्र शुद्धी | ज्ञान देहामध्ये शुद्ध आहे |
भरथा सारीखे मारायासी नेले | तेंव्हा न बोलले भ्याले नाही
ऐसे ते पुराण प्रसीदध असोनी | बोलीयेले ज्ञानी प्रसंगासी
तुकाविप्र म्हणे रहूगणा सवे | बोलीले स्वभावे सिद्ध ज्ञान
अभंग
ऐकिले जे पहिले प्रत्यक्ष | तेव्हा ही साक्ष गुजरली
मागे जाले पुढे होतील बहु | आता ही आहेत पृथ्वीवरी
परी हे अवघी खंडज्ञान कथा | वर्तत असता देहामाजी
देह नसलिया दर्शन डोळ्याचे | मग कोणा कैचे दृष्टीवीण
विदेही वर्तता दृष्टी नसे मग | वागवी ते जग आंधळे ते
सर्वा सार वस्तु वेदा आगोचर | पाहे तुकाविप्र संकीर्तनी
अभंग
न दिसे पदार्थ कोणीच जेधवा | आंधळे तेधवा वागवीती
म्हणोनीया वस्तु वेदा आगोचेर | सर्वा होनी सार देखिलीया
देहे धर्म पार मग त्यासी कैसा | काम क्रोध साचा द्वेष राग
मद मत्सर स्त्री विषयी नीसंग | देखणे अभंग भंग नाही
घट मठ भंगी आकाश आपण | सिद्ध पूर्ण पणे जेथे तेथे
तुकाविप्र वस्तु गुरु दिसे डोळा | विषये सोहळा तेथे कैचा
अभंग
बोलू आल्या ऐसे जाले पण सिद्ध | स्थिति आंगी शुद्ध बाणलीया
लोखंडासी खरा परीस लागला | लोहपण त्याला कैसे मीळे
लोहाची काळीम हीनता फिटली | लोहात राहिली तरी भिन्न
तैसा कोणी गुरु प्रसाद लाधला | सूर्यादी तयाला | पाहताती
तुकाविप्र म्हणे म्हणोनी या आधी | वस्तु शास्त्र सिद्धी गुरु कृपा
पद
पर वस्तु पाहे नित्य डोळा | गुरुपुत्र प्रसादी पुतळा ||धृ ||
दैन्य त्याचे दरिद्र पळाले | आधी वस्तु शस्त्रासी शोधिले | मग आत्म निष्ठे पोहचले | परब्रम्ही मिश्रित जाहाले
लवण या सागरात जैसे | भृंगी संगे आळी होय तैसे | देखिलीया ब्रम्ह व्यापकासी | मुकले ते मग जीव दसे
अंजनासी घालिता पायाळा | धन दिसे तयाचीया डोळा | सत्य सात फोडोनी पाताळा | गुरुकृपा तैसी आत्म कळा
वेवसीहा कोणताही तया | आसावा तो केधवा कासया | पूर्ण जाली जेंव्हा गुरु दया | तया असोनीया नाही काया
सारांशता प्रसाद सद्गुरू | आदी मध्य अंत भव तारु | बिजापोटी जैसे वाढे तरु | तुकाविप्र सिद्ध फळ भारू
अभंग
विद्या ते हेची अध्यात्म | प्रकाशाचे निजधाम
आज्ञानासी हे दाहक | ज्ञान होये महावाक्य
संत या मार्गे चालती | आत्म साक्षात्कारी होती
मेघ पडळाचे आड | सूर्य होताची उघड
निवारण मेघ होता | आसे प्रकाश आयता
तैसे अज्ञान जळाले | ज्ञान तेज प्रकाशले
आत्मा स्व प्रकाश आसे | तुकाविप्र हा प्रत्यक्षे
पद
तद्रूप हे सर्व | हे सर्व | वस्तूचे वैभव | धृ ||
चीदान्वये व्यवहारी | गौरव सहजी या संसारी |
देहान्वये कनकाला | वेवहार सहजी होता जाला
मृत्तिका घट नाना | नसोनी मृत्तिकेसी भिन्ना
पट तंतुसी दुजे | नसता दिसणे ते सहज
तुकाविप्र म्हणे भेटी | सद्गुरू प्रसाद सर्व ही सृष्टि
अभंग
आपूली नित्यता जाणे तोची ज्ञानी | ज्ञान त्रिभुवनी स्व संवेद्य तत्वता
प्रमाण नेणवे ज्याचा काही अंत | म्हणोनी अनंत सदोदित संपूर्ण
ब्रम्हानंद ऐसा आद्वये अपार | तोची परात्पर जाणिजे की अभंग
तुकाविप्र म्हणे ऐसीया निर्धारी | ब्रम्हाभ्यास करी निरंतर अद्वये
अभंग
सर्व सुखाचे ते सत्य होय धाम | ते मी परब्रम्ह ब्रम्है वास्मी निष्काम
ऐसी भावना हे दिव्यौषधी खरी | क्षय व्याधी हरी अविद्या हे जिवाची
म्हणोनीया नित्य आत्म हे भावना | देखे त्रिभुवना मायामय सकल
तुकाविप्र म्हणे ऐसीया येकांती | निघे अदवैती तोची ज्ञानी पुरता
अभंग
सद चीत आणि आनंद | त्रिविध वस्तु ते अभेद त्रिविधची नव्हेकी
तोषे वीण सदा संतोष असणे | आत्म सुख येणे सद चीद आनंदे
सद तेची चीद चीद ते आनंद | नव्हेची त्रिविध वस्तु सार येकली
तुकाविप्र सुखासुख हे संपूर्ण | येका येक पण ध्यान ध्येय ध्याताची
पद
सोने नग भेटी | नग भेटी मूळ स्वरूपा न तुटी
मिळणी दुसरीच नाडळे | आत्म साधन या स्थिति फळे
आतळोचीने दे ती | जेथे ज्ञानाचीये युक्ति
ध्येय ध्याता ते ध्यान | तेथे हे कैचे अनुसंधान
तुकाविप्र म्हणे वस्तूचे | वस्तु साधन हो येशाचे
अभंग
घटामाजी काही आकाश गुंतले | घटरूप जाले ऐसे दिसे
महदाकासी परी ते तुटले केव्हा | तैसे अनुभवा स्वत: सिद्ध
निराकार आणि आकार त्या रीती |अभंग आहेती येकी येक
तुकाविप्र ऐसी अखंड धारणा | साक्षात्कारी खुणा कार्य सिद्धी
अभंग
जया स्वरूपाचा अंत नाही कोठे | तेथे सत्य भेटे आत्मत्वची
ब्रम्ह नोहे जग जग नोहे ब्रम्ह | ऐसे आहे वर्म घरोघरी
परी या साधने ब्रम्ह जग दिसे | म्हणोनी उल्लासे | पहावे ते
तुकाविप्र महावाक्य निरोपण | संकळीत खूण समजाया
अभंग
चिंतामणी परीस असता | न पाळी कोणता आहे तैसा
आकाशासारखे मिळता दर्पण | न पाहे कवण आत्मरूपा
आत्मरूप दिसेन पाहता तेथे | विसरता जेथे तेची दिसे
तुकाविप्र डोळा विस्मर्णी ते दिसे | अधिक उल्लासे भक्ति परम
सौरी
कर्म क्रिये सवे सदा लागलची दिसे | सांडिताती ते सालेची जाय ऐसे नसे
अधिकची होये डोळे झाकीलीयावरी | देहाचीया देहभाव जाये सर्वापरी
तुकाविप्र निर्मनची सर्व परमात्मा | सर्व उपचार सत्य सर्व परब्रम्हा
सौरी
देह बुद्धी मुळे ज्ञान मळकट जाले | मुख्य रुप सहज लपोनिया गेले
आळंकारामुळे जाले डाक लग सोने | देहभावे मळकट जाले आत्मज्ञान
पडलीया पुटे झडे डाक सकळही | कासवटी सोने शुद्ध मग तैसे काही
तुकाविप्र ज्ञान ब्रम्ह सत्य सर्व असे | बोध भानु उदेजला ह्रदय चीदाकाशे
अभंग
ह्रदय आकासे सूर्य उगवला | सर्वी प्रकाशला आनंद हा भरीत
तीळांजूळी दील्ली देहाभिमानाते | प्रसन्न तयाते सर्व व्यापी प्रगट
स्वप्रकाश आर्क ह्रदय मांदिरी | सत्य सुखकारी सकळही जीवासी
तुकाविप्र सर्व सुखासी आराम | सर्वी सदा सम देश काळ रहीत
अभंग
महावाक्य निरोपण संकळीत | कीर्तन सभेत प्राकृतची अभंग
कलयुग आवघेची प्राकृत | ब्रम्हा विष्णु त्यात प्राकृतची महेश
माया गणपती प्राकृत सकळ | वैकुंठ पाताळ स्वर्ग सर्व प्राकृत
तुकाविप्र जीणे प्राकृत कलीचे | अभंग भक्तीचे हरी गुरु कीर्तन
अभंग
प्राकृता वेगळा वेदार्थ कळेना | कलीचीया जना म्हणोनी हे प्राकृत
वेद कृता युगी त्रेता युगी शास्त्र | पुराण द्वापार प्राकृतच कली हे
येथे हेची भाशा वेदार्थ बोलती | सर्व समजती अर्थ भाषा प्राकृत
प्रांजळ समजे या नाव प्राकृत | म्हणोनी पंडित जाणवीती प्राकृते
तुकाविप्र वाणी प्राकृत अभंग | वेदांचे सर्वांग प्राकृतची अंतर
अभंग
प्राकृता वेगळे समजावे काये | घरोघरी आहे वेद घोष होत की
परी समजेना प्राकृता वेगळा | प्रांजळ मोकळा अर्थ वेद श्रुतीचा
श्रुतीची वचने पंडित म्हणती | प्राकृते सांगती गर्भ त्याचा सकळ
ऊसाचीया पोटी साखरेच्या रासी | श्रीमंत जनासी भोगवीती चतुर
दुधातूनी तूप काढीती सुगरी | पंगती साजिरी होये तेणे सहज
तुकाविप्र वाणी वेदाचे पोटीची | प्राकृत कलीची सुराणी हे अभंग
अभंग
समस्त भासेला नमन साष्टांग | विनंती अभंग मराठी हे प्राकृत
सयाद्री पर्वत कृष्ण वेणी तीर | क्षेत्र रामपूर देश दंडकारण्य
रणदुल्ला याने रहीम ठेवीले | पुर नाम आले आजोनिया शोभेसी
जोसी कुलकर्णी कसबे क्षेत्रीचे | गौतम कुळीचे कुळ भक्ति भूषण
जमेत न कोठे खर्चात हा जीव | गोष्टी अनुभव जैशा तैशा बोलत
गत कली चार हजार आठसे |चौऱ्यांशी प्रत्यक्षे चालतची आहेत
शालिवान शक सत्रा शत सहा | दीन चालत हा कृष्ण माघ पाडवा
रवी संक्रमण सोमवती पर्व | मुहूर्त अपूर्व धन संधी लिखिता
इति तो संपूर्ण आनंद अभंग | संकीर्तन रंग माहावाक्य वेद श्री
मुलाने आक्षेप काही केला प्रीती | म्हणोनी लिखिती मनोल्लास जाहाला
चिरंजीव दादा पीलाजी गोविंद | मूलयाने छंद घेतला हा प्रीतीचा
आनंदले मन अनुभव बोलला | आनंद लिहिला आला ऐसा अभंग
पुराण प्रसिद्ध प्रसंग कीर्तन | आनंद भुवन तुकाविप्र विठ्ठल
मनोल्लासे हेता ऐसी केली प्रीती | अभंग विनंती वेद शास्त्र पुराण
संत सिद्ध साधू सूतर्की सुढाळ | अंतर निर्मळ नमो सर्वा विनंती
सहज मुलाचा हेत शुद्ध भोळा | त्या रीती सरस अर्थ आला प्रसंगा
तुकाविप्र भावे लोटांगण सर्वा | नमन भूदेवा भक्ति भावा विनंती
पद
स्वधर्म कर्म ईश्वर आर्जवाया | अग्निमुखे हवनासी | सत्य निष्ठा देवापासी | लाभ जाल्या नरकाया
नित्य पूजा ब्राम्हणाची | पंगतीसी भोजनाची | आश्रमासी पातलीया
गुरु भक्ति परायण | नरदेही आधी होणे | संपादणे गुरु दया
सन्मानावे आतीताला | सुख द्यावे स्व यातीला | सहजची स्वधर्मी या
तुकाविप्र स्वधर्माचा | लाभ जाला स्वसुखाचा | संकीर्तनी नाचावया
अभंग
गुरु गोत्र आणि धेनु पूजा द्विज | पितर सहज देव ऐसे
नित्य निष्ठा नेम पूजन आवडी | स्वधर्म हे जोडी जोडलीया
मग हाच धर्म कामधेनु होये | सर्व कामना हे पुरवील
सर्व देव गणा तृप्तता होईल | तेच चालवीतील योग क्षेम
इच्छीले मनी ते होईलची प्राप्त | सुप्रसन्न सत्य देव होती
तुकाविप्र म्हणे स्वधर्म चालता | सर्व असे सत्ता देवा वरी
पद
नित्य यज्ञ स्वधर्म निर्मिली | ब्रम्हदेवे प्रजा वाढविली ||धृ||
विसरली प्रजा स्वधर्मासी | विनवीते व्हा ब्रम्हयासी | देवा कोण आश्रये आम्हासी | सार्थकता देह धरीलीयासी
मग ब्रम्हदेव बोलीयेले | तुम्हासाटी विहित चांगले | नित्य यज्ञ स्वधर्म नेमीले | चालता हेत पुरतील
पीडू नका सहसा शरीरा | व्रते तपे तीर्थे ही न करा | मंत्र यंत्र साधन पसारा | हेतु युक्त यागाही न करा
यज्ञ तुम्ही स्वधर्म यजावे | अहेतुक चित्ते अनूष्टावे | पतीव्रता जैसी पती सेवे | तैसा तू ह्या स्वधर्मची स्येव्य
ऐसे ब्रम्हदेव बोलीयेले | कृष्णदेवे पार्था सांगितले | ज्ञानेश्वरे तेच प्रगटीले | आमुचीया प्रचितीसी आले
तुकाविप्र स्वधर्म राहाटी | नित्यनेम कीर्तन वैकुंठी | सत्यवास कृष्णेचीया तटे | बोलाबोली संताची हे भेटी